Random Posts

Header Ads

BIOGRAPHY/जीवनी

मीरा का जीवन परिचय Biography of meera

 आज हम चर्चा करेंगे भक्त शिरोमणि मीरा बाई की जिसने राजस्थान की पावन धरा पर जन्म लिया ।

मीरा परिचय
कवयित्री-परिचय-सगुण धारा की महत्त्वपूर्ण भक्त कवयित्री
मीराँ का जन्म सन् 1498 में कुड़की गाँव (मारवाड रियासत) में हुआ था। मीराँ का बाल्यकाल सुख से नहीं बीता। जब वे दो वर्ष की भी नहीं हो पायी थी इनकी माता का स्वर्गवास हो गया था फलत:राव दूदाजी ने इन्हें अपने पास बुला लिया और मेड़ता में अपनी अपनी देख देख में उनका पालन-पोषण किया। जिस समय मीरों का जन्म हुआ था वह राजपूतों के संघर्ष का काल था। अंतः इनके पिता रत्नसिह रात-दिन युद्धों में लगे रहते थे। इसलिए इनकी शिक्षा का समुचित प्रबन्ध नहीं हो सका।
इनका विवाह मेवाड़ के प्रसिद्ध महाराणा साँगा के ज्येष्ठ पुत्र कुवंर भोजराज के साथ हुआ था। लेकिन मीराँ का वैवाहिक जीवन काफी सुखी नहीं था। भोजराज का अकस्मात् देहान्त हो गया। मीराँ ने समयऔर परिस्थिति के आधार पर लोकलाज त्याग कर भक्ति के मधुर और
संघर्षपूर्ण क्षेत्र मे प्रवेश कर कृष्ण दीवानी मीराँ बन गयी। इनका स्वर्वाससन् 1546 में हो गया।



  मीरा का बाल्यकाल और विवाह मीरा मेडता के राठौड़ राव दूदा के  पुत्र रतन सिंह की इकलौती संतान
थी।  मीरा का जन्म मेड़ता से लगभग 21 मील दूर कुड़की नामक गांव में हुआ था ‌।मीरा की अल्पायु में ही माँ का साया उठ गया, अतः राव दूदा ने मेड़ता में मीरा पालन-पोषण किया। राव दूदा कृष्ण-भक्त थे तथा परिवार के अन्य सदस्य भी वैष्णव धर्म के मानने वाले थे।


अत: मीरा को घरेलू वातावरण ही भक्तिमय प्राप्त हुआ।राव दूदा ने एक गुर्जर गौड़ विद्वान पण्डित गजाधर को मीरा का शिक्षक नियुक्त किया। पण्डित् गजाधर पाठ-पूजन के अलावा मीरा को भिन्न-भिन कथा, पुराण, स्मृतियां आदि सुनाया करते थे। फलस्वरूप कुशाग्रबुद्धि वाली मीरा थोड़े ही वर्षों में पूर्ण विदुषी हो गयी। 1515 ई. में राव दूदा की मृत्यु के बाद वीरमदेव मेड़ता का शासक हुआ, जिसने अपनी भतीजी मीरा का विवाह 1516ई में मेवाड़ के महाराणा साँगा के ज्येष्ठ पुत्र भोजराज के साथ कर दिया । दुर्भाग्य से विवाह के 7 वर्ष बाद ही कुँवर भोजराज का देहान्त हो गया और मीरा लौकिक सुहाग -सुख से वंचित हो गयी। इसी भीषण आघात से मीरा का मन संसार से उचट गया ।मीरा अपना अधिकांश समय सत्संग और भजन कीर्तन  में व्यतीत करने लगी।

 
इसके कुछ समय बाद खानवा के युद्ध में उसके पिता रतनसिंह मारे गये और बाद में उसके श्वसुर महाराणा साँगा का भी देहान्त हो गया। उसके चाचा वीरमदेव को मालदेव ने पराजित कर मेडता से भगा दिया। अत: मीरा को न तो ससराल में कोई ढाढस बंधाने वाला रह गया और न पीहर में । महाराणा साँगा की मृत्यु के बाद कंवर रतनसिंह और बाद में विक्रमादित्य मेवाड़ के शासक बने। मीरा की वैष्णव धर्म के प्रति आस्था थी तो रतनसिंह और विक्रमादित्य को शैव धर्म में श्रद्धा थी।
रतनसिंह और विक्रमादित्य की पहलवानों व तमाशबीनों की संगति थी तो मीरा की साधु-सन्तों से धर्म चर्चों। इन प्रवृत्तियों का कोई मेल नहीं था। अतः मीरा को घोर यातनाएँ दी गई, किन्तु कृष्ण-भक्ति में लीन मीरा इन यातनाओं को वैधव्य के कड़वे घूंट समझकर पी गई  किन्तु जब उसे दी जाने वाली यातनाओं से उसके भजन -कीर्तन में बाधा उत्पन्न होने लगी।

तब वह मेड़ता आ गई  किन्तु इसी समय वीरमदेव को मालदेव से पराजित होकर मेड़ता छोड़ना पड़ा था, अतः मीरा वृन्दावन चली गयी। यहाँ के रूप गोस्वामी ने स्त्रियों का मुंह न देखने का प्रण ले रखा था, मीरा ने उनके प्रण को छुड़वाया। राणा की कुटिल चालों के कारण मीरो को वृन्दावन छोड़कर द्वारिका जाना पड़ा  इसी बीच उसके चंचेरे भोई जयमल राठौड़ ने पुनः मेड़ता को अधिकृत कर लिया और मीरा को द्वारिका से बुलाना चाहा, लेकिन मीरा ने द्वारिका नहीं छोड़ा। कहा जाता है कि अन्त में जयमल ने कुछ पुरोहितों को भेजा, जो मीरा के द्वार पर धरना देकर बैठ गये । 

तब मीरा मन्दिर में गयी और एक भजन गाया जिसका अर्थ था कि, हे प्रभु मै इस पुनीत धाम को कदापि नहीं त्याग सकती, यह मेरा प्रण है, साथ ही अनजाने में इन ब्राह्यणों की मृत्यु से ब्रह्म हत्या का दोष भी लगेगा। अत: ऐसा उपाय करो कि मैं अपने प्रण को भी निभा सकू र्और ब्रहम-हत्या से भी बच सकूँ। इस भजन के गाते हुए ही मीरा के प्राण-पखेरू उड़ गये और द्वारिकाधीश की प्रतिमा में विलीन हो गये। इस कहानी में कितना सत्य है, यह तो नहीं कहा जा सकता, लेकिन अधिकांश साक्ष्यों से इस बात की पुष्टि होती है कि मीरा का देहान्त द्वारिका में ही हुआ था

मीरा की भक्ति- भावना मीरा में कृष्ण के प्रति भक्ति- भावना का बीजारोपण बाल्यकाल में ही हो गया था। अधिकांश विद्वानों की मान्यता है कि बचपन में किसी साधु ने मीरा को कृष्ण की मूर्ति दी थी और विवाह के बाद वह उस मूर्ति को चित्तौड़ ले गयी।'जयमल वंश प्रकाश' में
कहा गया है कि "विवाह होने पर मीरा अपने विद्या गुरु पण्डित गजाधर को भी अपने साथ चित्तौड़ ले आयी थी। दुर्ग में मुरलीधर जी का मन्दिर बनवा कर पूजा आदि का समस्त दायित्व पण्डित गजाधर को सौप दिया। इस कार्य के लिए गजाधर को मांडल व पुर में 2,000 लीघा जमीन प्रदान की जो अद्यावधि उसके वंशजों के पास है।" चित्तौड़ में वह कृष्ण की पूजा-अर्चना करती रही। किन्तु विधवा होने के बाद तो उस पर विपत्तियों का पहाड ट्रट पड़ा, जिससे उसका मन वैराग्य की ओर उन्मुख हो गया और उसका अधिकांश समय भगवद्-भक्ति और साधु-संगति में व्यतीत होने लगा। मीरा का साधु-सन्तों में बैठना विक्रमादित्य को उचित नहीं लगा। अतःउसने मीरा को भक्ति-मार्ग से विमुख कर महल की चहारदीवारी में बन्द करने हेतु अनेक कष्ट दिये। ज्यों-ज्यों मीरा को कष्ट दिये गये, त्यों- त्यों उसका लौकिक-जीवन से मोह घटता गया और कृष्ण-भक्त के प्रति निष्ठा बढ़ती गयी । चित्तौड़ के प्रतिकृल वातावरण को छोड़- कर वह मेड़ता आ गयी और कृष्ण-भूक्ति व साधु-सन्तों की सेवा में लग गयी। मीरा ने अपना शेष जीवन वृन्दावन और द्वारिका में भजन- कीर्तन और साधु -संगति में बिताया। इस प्रकार मीरा की कृष्ण भक्ति निरन्तर दृढ़ होती गयी तथा वृन्दावन व द्वारिका पहुँचने तक तो वह कृष्ण को अपने पति के रूप में स्वीकार कर अमर सुहागिन बन गयी।

प्रमुख रचनाएँ-मीराँ रचित पुस्तकों के सम्बन्ध में विद्वान
एकमत नहीं हैं । कुल मिलाकर मीराँ द्वारा रचित निम्नलिखित रचनाओं को माना जाता है - (1) गीत गोविन्द की टीका (2) नरसीजी रो मायरो
(3) फुटकर पद (4) राग सोरठ-संग्रह (5) राग गोविन्द (6) मीराँ की मल्हार (7) गर्वागीत और (8) मीराँ की पदावली (संपादक -परशुराम
चतुर्वेदी)।

READ ALSO-https://www.blogger.com/blog/post/edit/3295492175723951776/221865045484664864

मीरा का जीवन परिचय Biography of meera मीरा का जीवन परिचय Biography of meera Reviewed by Welcomstudiomalpura on जनवरी 14, 2023 Rating: 5

कोई टिप्पणी नहीं:

Featured Post

भगवान सहाय सेन

 कवि भगवान सहाय सेन जयपुर आमेर Kavi bhagwansahay sen jaipur राजस्थान के प्रसिद्ध कवि व गायक भगवान सहाय सेन का आज दिनांक 13-03-2024 को ह्रदय ...

Ad Home

Blogger द्वारा संचालित.