महावीर स्वामी का जीवन परिचय। Biography of mahaveer swami
महावीर स्वामी की जीवनी—जैन धर्म के चौबीसवें तथा अन्तिम तीर्थंकर महावीर स्वामी का जन्म वैशाली के समीप कुण्डग्राम में ज्ञातृक क्षत्रिय कुल में 599 ई. पू. के आस-पास हुआ था। उनके पिता का नाम सिद्धार्थ था । सिद्धार्थ ज्ञातृक क्षत्रियों के छोटे-से राज्य कुण्डग्राम के सरदार थे।
Mahaveer swami mother name महावीर स्वामी की माता का नाम त्रिशला था ।वह लिच्छवी वंश के प्रसिद्ध राजा चेटक की बहिन थी। महावीर स्वामी के बचपन का नाम वर्धमान था। उनके जन्म पर ज्योतिषियों ने भविष्यवाणी की थी कि बड़ा होने पर वह या तो चक्रवर्ती राजा बनेगा अथवा परमज्ञानी भिक्षु। वर्धमान को बचपन से ही क्षत्रियोचित शिक्षा दी गई थी।
महावीर स्वामी का विवाह यशोदा नामक सुंदर राजकन्या के साथ किया गया इस वैवाहिक संबंध से उनके पुत्री भी हुई जिसका विवाह जमाली नामक क्षत्रिय सरदार के साथ किया गया था वर्धमान जब 30 वर्ष के हुए तब उनके पिता का स्वर्गवास हो गया इस घटना से उनकी प्रवृत्ति और भी अधिक मजबूत हो गई और उन्होंने अपने बड़े भाई नंदी वर्धन सेआज्ञा लेकर गृह-त्याग कर दिया और वे भिक्षु बन गये।
महावीर ने एक वर्ष और एक मास तक वस्त्र धारण किए और घोर तपस्या की। परन्तु उन्हें अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में सफलता नहीं मिली। असन्तुष्ट होकर उन्होंने पार्श्वनाथ के सम्प्रदाय को छोड़ दिया और अकेले ही तपस्या करने लगे। उनके वस्त्र जीर्ण-शीर्ण होकर गिर गए। तब वर्धमान ने नंगे रहना प्रारम्भ किया। उनके नग्न शरीर पर अनेक प्रकार के कीट-कीटाणु चढ़ने लगे और उन्हें काटने लगे। परन्तु वे पूर्णत: उदासीन रहे । बारह वर्ष तक वे अपने शरीर की पूर्णत: उपेक्षा कर सब प्रकार के कष्ट सहते रहे।महावीर स्वामी ने संसार के समस्त बन्धनों का उच्छेद कर दिया।(ऋजुपालिका) सरिता के तट पर महावीर को कैवल्य (ज्ञान) प्राप्त हुआ, तभी उन्हें 'केवलिन'की उपाधि मिली।
संसार से वे सर्वथा निर्लिप्त हो गये। अन्त में,जम्भियग्राम (जृम्भिका) के समीप उज्जुवालिया की उपाधि मिली। अपनी इन्द्रियों को जीत लेने के कारण वे जिन कहलाये। तपस्या के समय अपूर्व साहस दिखलाने के कारण वे ‘महावीर' के नाम से पुकारे जाने लगे। उन्होंने समस्त सांसारिक बन्धनों को तोड़ दिया था, इसलिए वे 'निर्ग्रन्थ' भी कहलाये।
सत्य का ज्ञान हो जाने के बाद महावीर स्वामी ने जनता को जीवनयापन का सही मार्ग दिखाने का कार्य आरम्भ किया। जनता में अपने विचारों का प्रचार करने के लिए वे स्थान-स्थान पर घूमने लगे। मगध, काशी, कोसल आदि राज्य उनके प्रचार-क्षेत्र थे। महावीर स्वामी का कई राजवंशों से निकट का सम्बन्ध था, अत: उन राजवंशों से उन्हें अपने धर्मप्रचार में काफी सहायता मिली । उनकी सत्य वाणी तथा जीवन के सरल मार्ग से प्रभावित होकर सैकड़ों लोग उनके अनुयायी बनने लगे।
राजा-महाराजा, वैश्य-व्यापारी तथा अन्य लोग उनकी बातों का अनुसरण करने लगे और धीरे-धीरे उनके अनुयायियों की संख्या काफी बढ़ गई। जैन साहित्य से पता चलता है कि लिच्छवी राज्य का चेटक, अवन्ती का प्रद्योत, मगध के बिम्बिसार और अजातशत्रु, चम्पा का दधिवाहन और सिन्धु-सौवीर का उदयन आदि राजा, महावीर के प्रति परम श्रद्धालु थे और उनके अनुयायी बन गये। बौद्ध ग्रन्थों के अनुसार बिम्बिसार और प्रद्योत महात्मा बुद्ध के अनुयायी थे। इससे पता चलता है कि उस युग के हिन्दू शासक धार्मिक दृष्टि से काफी उदार तथा सहिष्णु थे और वे ज्ञानी पुरुषों का समान रूप से आदर करते थे।
इसी कारण जैन और बौद्ध—दोनों धर्मों ने उनमें से अधिकांश को अपना-अपना अनुयायी मान लिया। अन्त में 527 ई. पूर्व (कुछ के अनुसार 467 ई. पूर्व) के आसपास 72 वर्ष की आयु में पावापुरी (पटना) में महावीर स्वामी को मोक्ष प्राप्त हुआ। उनकी मृत्यु के बाद भी उनका धर्म फलता-फूलता रहा और आज भी विद्यमान है।
महावीर स्वामी और पार्श्वनाथ के सिद्धान्तों में अधिक मतभेद नहीं था। जहाँ पार्श्वनाथ ने चार व्रतो की आवश्यकता पर जोर दिया था वहा महावीर स्वामी ने 'ब्रह्मचर्य' नामक एक और व्रत जोड़कर पांच व्रतों पर जोर दिया। मतभेद का दूसरा बिन्दु वस्त्र पहनने से था। पार्श्व ने अपने अनुयायियों को वस्त्र पहनने की स्वीकृति दे दी थी, परन्तु महावीर स्वामी ने जैन भिक्षुओं को निर्वस्त्र रहने को कहा था।
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