एक लड्डू और तीन सपने
एक समय की बात है। तीन मित्र थे। एक ब्राह्मण, दूसरा क्षत्रिय और तीसरा जाट। एक दिन तीनों यात्रा पर निकले।
पहले पड़ाव पर जब उन्होंने रसोई बनाई तो चूरमे के चार लड्डू बनाए। तीनों ने एक-एक लड्डू खा लिया बचे एक लड्डू के बारे में निश्चय किया कि जब तीनों मित्र सो जाएं तब जिसका सपना सबसे अच्छा होगा, यह लड्डू उसी को मिलेगा।तीनों सो गए। सुबह उठने के बाद ब्राह्मण ने कहा, 'मुझे इतना अच्छा सपना आया है कि लड्डू मुझे ही मिलेगा।' क्षत्रिय व जाट ने कहा, 'पहले अपना सपना तो सुनाओ।'उठने के बाद ब्राह्मण
हो, 'मुझे इतना अच्छा सपना आया है
कि लड्डू मुझे ही मिलेगा। क्षत्रिय व बाट ने
कहा, 'पहले अपना सपना तो सुनाओ।'
तब ब्राह्मण ने अपना सपना सुनाया, 'मैं एक बड़े शहर में पहुँचा। वहां सन्धया पूजन कर ही रहा था कि आठ-दस आदमी आए और बोले, 'हमारे साथ चलो तुम्हारा विवाह करवाएंगे' मैंने सारी बात पूछी तो उन्होंने बताया कि यहां के राजगुरु की पुत्री का विवाह आज होने वाला था। बारात आने पर पता चला कि दूल्हा काना है।
सगाई के समय दूसरा लड़का बताया गया था। दूल्हे को देखकर राजगुरु क्रोधित हो गए उन्होंने दूल्हे समेत बारात को धक्के देकर वापस भेज दिया। हमें उन्होंने ये आदेश दिया है कि जो भी सुसंस्कृत बग्राह्मण-पुत्र मिले, उसे ले आओ। उसी के साथ कन्या का विवाह कर दिया जाएगा। आप जैसा योग्य युवक कहां मिलेगा। हमने तय किया है कि राजगुरु की पुत्री का विवाह आपके साथ ही किया जाये। कृपया आप हमारे साथ चलिए।'
'मैं उनके साथ राज-गुरु के महल में पहुँचा। वहां मेरा विवाह उस लड़की के साथ धूमधाम से हुआ। इस कारण राजसम्मान भी खूब मिला। बोलो है न अच्छा सपना?'
यह सुन क्षत्रिय ने कहा, 'मित्र! मेरा सपना तुमसे भी अच्छा है।' ये कहकर उसने अपना सपना सुनाना शुरु कर दिया।
उसने कहा, 'मैं एक शहर में पहुंचा वहां के राजा की मृत्यु हो गई थी। उस राज्य में यह परम्परा थी कि अगर राजा निःसंतान मर जाता है तो सारे राज्य में ढिंढोरा पिटवाकर यह सूचना दे दी जाए और बारवें दिन सभी लोग विशाल मैदान में इकट्ठा हो जाएं। इसके बाद एक हाथी को सूंड में माला देकर घुमाया जावे।वह हाथी जिसके गले में माला डालेगा वह ही वहा का अगला राजा कहलायेगा। वह राजा की मृत्यु का बारहवां दिन था। वहां पर भारी भीड़ देख मैं भी वहीं खड़ा हो गया।
उस हाथी को न जाने क्या सूझा कि सारी भीड़ को चीरता हुआ वह मेरे पास आ पहुंचा और माला मेरे गले में डाल दी। माला गले में पड़ते ही भीड़ 'महाराज की जय हो, महाराज की जय हो' के नारे लगाने लगी।
मैं एक बार तो हक्का-बक्का रह गया और समझ ही नहीं पाया कि यह सब कैसे और क्या हो गया? लेकिन फिर तुंरत ही संभला और अपने भाग्य को सराहा।
मुझे हाथी पर बैठाकर राजमहल ले जाया गया। इक्यावन तोपों की सलामी के साथ मेरा राजतिलक हुआ।
इस प्रकार मैं एक विशाल साम्राज्य का स्वामी बन गया।' इतना कहकर क्षत्रिय युवक ने ब्राह्मण से कहा, 'बोलो मेरा सपना तुम्हारे सपने से अच्छा है ना?' ब्राह्मण ने सहमति से सिर हिला दिया।
अब दोनों जाट से बोले, 'तुम भी अपना सपना सुनाओ?'
जाट ने कहा, -क्या बताऊं मुझे तो इतना डरावना सपना आया कि अब तक मैं तो थर-थर कांप रहा हूँ।
मुझे तो सपने में एक राक्षस दिखाई दिया बोला जल्दी से उठ मेरे सामने अभी, इसी समय लड्डू खा!'
मैंने कहा, 'हम तीनों मित्र हैं और शर्त लगाकर सोए हैं।' इस पर भूत ने गरजकर कहा, 'शर्त गई भाड़ में, तू लड्डू को खाता है या मैं तुझे खाऊं।' सच कहता हूं भाई मैं तो इतना डर गया कि बस! मुझे मेरी मौत नजर आने लगी। बिना इच्छा के वो लड्डू मुझे खाना ही पड़ा।
दोनों मित्रों ने बरतन पर से कपड़ा हटाया तो वहां से लड्डू गायब था।
दोनों ने खीझकर पूछा तो, 'जब भूत आया तो हमें पुकारा क्यों नहीं?' जाट बोला, पुकारा तो बहुत था लेकिन एक तरह तो (ब्राह्मण की ओर इशारा कर) शादी के गीत गाए जा रहे थे और दूसरी तरफ (क्षत्रिय की ओर इशारा करके) इसके राजतिलक की तैयारियां चल रही थीं, बाजे बज रहे थे तोपों गरज रहीं थी। उसी शोर में तुम दोनों ही मेरी आवाज नहीं सुन पाए। फिर मरता क्या न करता। जबरदस्ती चूरमें का लड्डू खाना पड़ा। वह लड्डू नहीं खाता तो वह राक्षस मुझे खा जाता।'
बोली का कमाल कहानी
दो बहनें थीं, संतो और बंतों। साथ खेलती, साथ खाती, कभी झगड़ती, फिर रुठती-मनाती और रात को एक दूसरी के गले में बाहें डाल सो जातीं थी।
देखते-देखते दोनों बड़ी हो गई। संतो बड़ी थी, सो उसका विवाह पास के गांव के मुखिया खड़कसिंह से हो गया।
संतो चली गई तो बंतो अकेली रह गई। वह संतो को याद कर-कर रोती। संतो तो अपनी घर गृहस्थी में मग्न हो गई, पर बंतो की बातें उसे भी याद आती।
एक दिन मां ने बंतो से कहा, 'बहन को इतना याद करती है, जा कुछ दिन उसके पास रह आ।' बंतो खुशी-खुशी संतों की ससुराल पहुंची। उसे संतो के यहां बड़ा अच्छा लगा।
पर जाने क्यों वह खड़कसिंह को देखती, उसे कुछ अजीब सा लगता था। उसकी बड़ी-बड़ी मूंछ, तगड़ी सी पगड़ी और कमर में लटकती कटार देख वह सहम जाती। जीजा ने भी उससे कभी हंस कर बात नहीं की थीं।
एक बार खड़कसिंह चौपाल पर बैठ गांव के लोगो से बतिया रहा था। घर में संतो भोजन के लिए उसका इंतजार कर रही थी। बहुत देर हो गई तो संतो ने बंतो से कहा, 'जा बंतो अपने जीजा को बुलाला। मुखिया क्या बने, उन्हें खाने-पीने का होश ही नहीं रहता।' बंतो जैसी थी, वैसी भागी गई और चौपाल पर जाकर बोली,
'दिन भर बातों - गप्पों की धुन! नहीं लेते घर की सुध-बुध खाना है तो घर आओ नहीं भाड़ में जाओ!'
साली की ऐसी बोली सुन खड़क सिंह को बड़ा बुरा लगा। वह रोब से बोला, 'ना बाल संवारे ना पांव में जूती, भागी चली आई, तनिक शर्म नहीं आई!'
बंतो रोते-रोते घर पहुंची और सारी बात बताई। तब संतो ने कहा, 'तुम्हारा जीजा गांव का मुखिया है। उसे तेरा ऐसे बोलना, वह भी इतने लोगों के बीच, नहीं सुहाया।
अबकी बार जैसे मैं कहती हूँ, वैसे बुलाना', कहकर संतो के कान में कुछ कहा। बंतो दुबारा सजसंवर कर गई और बोली.
'सिर पर पगड़ी लटके कमर कटार राजा जैसे जीजा मेरे, भोजन है तैयार!'
अपनी साली की मीठी बातें सुनकर खड़कसिंह खुशी-खुशी बंतो के साथ चल दिया।
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